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माओ की माया

satyagrah
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किसे पता था कि बंगाल के एक छोटे से इलाके नक्सलबाड़ी से शुरु हो माओवादी आन्दोलन आज देश के बीचोबीच एक लाल गलियारा बना देगा. किसे पता था कि गैर-आदिवासिओं द्वारा आरंभ किया गया यह जन-आन्दोलन अंततः आदिवासिओं को भी अपने चपेट में ले लेगा. और किसे पता था कि विकास न होने की चिढ और अपने उपर अत्याचार होने की चोट से जन्मा यह अनल अपनी लपटों से स्वयं विकास को न होने देगा और पीड़ित के होने के नाम पर स्वयं दूसरों को पीड़ित करेगा.

आदिवासी सदिओं से अलग रहे हैं. प्राचीन भारत हो या मध्य भारत, शासकों ने इनकी सीमाओं का कभी अतिक्रमण नहीं किया. यह तो अंग्रेज़ थे जिन्होने जंगल और खनिजों के लालच में इनकी जगहों पर अपना कब्जा करने लगे. इसी दौरान कुछ बाहरी लोगों (देश के) का आगमन हुआ जिन्होने इनकी जमीनों पर भी कब्जा कर लिया. ईसाई मिशनरीओं ने सुविधाओं के नाम पर धर्मांतरण किया. यही कुछ चन्द कारण थे जिसके कारण इन आदिवासिओं के विद्रोह हुये. शायद भारत में अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज उठानेवालों में ये पहले थे.

औद्योगीकरण और नगरीकरण ने आज़ादी के बाद इनका सबसे ज्यादा अहित किया. अपने स्थान से विस्थापित इन बेघरों को को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा. भुखमरी (जंगल छिन गये), बीमारी ( नई जगह संकुचित थी- कॉलरा आदि बीमारियाँ जो इनमें कभी न थी), अति-व्ययशीलता (पैसे की कीमत पता नहीं) आदि समस्याएं और इनसे उत्पन्न जैसे समाज का बिखराव इनकी नियति बन चुकी हैं.

यहीं पर इन्हें माओवाद का धरातल मिला जिसकी परणिति हिंसक घटनाओं में हुई. आज भी इनके उपर पुलिस, प्रशासन, औद्योगिक इकाईओ का कहर है.

अगर इतनी ही बात रहती तो तो सुलझाई जा सकती थी. मगर मामला हद से उपर बढ चुका है. अब देश की संप्रभुता को चुनौती देते ये नक्सली अलग देश बनाने का सपना सॅंजो चुके हैं. 1992 में हुये पेनांग कान्फरेन्स में इंडिजेनस पॉप्युलेशन ग्रूप(एक विश्व स्तर का प्लॅटफॉर्म) की माँगें कुछ इस प्रकार थी-

1)      इंडिजेनस पॉप्युलेशन की सीमा का चिन्हिकरण

2)      सीमाओं के भीतर वन और प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण अधिकार

3)      आत्मनिर्णय का अधिकार

आत्मनिर्णय का अधिकार किसी भी देश के लिये ग्राह्य नहीं. अगर भारत की बात करें तो यह सम्पूर्ण देश को कई टुकड़ों में तोड देगा. हद तो तब हो गई जब अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन ने इस समूह को मान्यता प्रदान कर दी. इस ग्रूप ने कई विकासोन्मुख सरकारी और गैर-सरकारी अभियानों का प्रतिरोध किया है. आज हम रेल की पतारिओं के उखाड़े जाने की खबर सुनते है, वह इसी प्रतिरोध की एक कड़ी है. इसके अलावा इस प्रतिरोध ने एक और जरिया ढूंढ लिया है- लाल गलियारे का विस्तार दक्षिण भारत से चीन तक.

पैसा बाहर से आ रहा है. आज झारखण्ड के किसी सुदूर गांव की यह कहानी है कि नक्सली हर घर में मिलेंगे. हम उन्हें पहचान नहीं सकते. क्यों न हों ? पैसा मिलता है, एक नौकरी की तरह. राजनीति भी उनकी कद्र करती है.

इनका वैचारिक धरातल तो कब का गायब हो चुका है. विकास का विरोध करना इसकी निशानी है.

क्या करे भारत ? क्या इनको चुन-चुन कर मारे. कितनों को, किसको ? बहुत है, अपने ही देश की आम जनता (ट्राइब) है. या फिर इनका विकास करे, जो ये होने नहीं देते.  या फिर जैसे चल रहा है, वैसे चलने दिया जाये.

सरकार इनका विकास चाहती है, मगर यह प्राथमिकता नहीं है. इनको वस्तु (ऑब्जेक्ट) की तरह इस्तेमाल किया जाता है. हाल-फिलहाल का भूमि-अधिग्रहण बिल हो या माइन्स बिल या फिर वन-न���ति हो, इनको पहले से ज्यादा मिला है, मगर औद्योगिक विकास के समक्ष इनके विकास को कम भाव मिला है.

योजनाएं भी बहुत बनीं हैं, मगर फलीभूत नहीं होती. सरकारी अफसर और कुछ ट्राइबल नेता भी जिम्मेदार हैं इसके लिये.  एक अच्छी पुनर्वास नीति की जरूरत है.

एक साधारण ट्राइब को देश की समझ नहीं. और देश की अन्य जनता को भी यह समझ नहीं कि ट्राइब यह नहीं समझते. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा अंडमान के जरावा ट्राइब का. क्या उसे समझ है कि भारत क्या है, धर्म क्या है……आदि, आदि. बिल्कुल नहीं. ठीक यही स्थिति आज से 50-100 साल पहले मुख्य भूमि के आदिवासिओं की थी, कुछ हद तक आज भी है. ऐसे में उनमें अलगाव की भावना होना कोई आश्चर्य की बात नहीं. सही लक्षित शिक्षा ही उनमें राष्ट्रवाद की भावना भर सकती है.

कुछ प्रमुख विरोधी तत्वों को, कोम्मान्डरों को पकडना चाहिये. ये वही लोग हैं जो अलगाववाद का पाठ पढाकर अपनी रोटियाँ सेंकते हैं. साल्वा जुडूम जैसे प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा आवश्यक हैं बनिस्पत पुलिस के. रोजगार मिले इनको जिससे ये लोग नक्सली आन्दोलन की ओर जाने से बचें.

एक सामान्य आदिवासी आज भी सरल है. प्रॉजेक्ट टाइगर को लेकर एक का कहना था- यह कैसा न्याय है कि यदि बाघ हमें मारता है तो हमें पैसे मिलते है और यदि हम बाघ को मारते हैं, तो हमें सजा होती है.

इस समस्या का हल इतना आसान नहीं. शायद समय ही इस मर्ज़ की दवा है. यदि माओवाद की हिंसा की जगह शान्तिमय विरोध किया गया होता प्रारंभ से, तो शायद यह समस्या इतनी विकट न हो पाती. हाल के जल-सत्याग्रह की सफलता इसकी गवाही देती है.

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